Thursday, March 21, 2013


टुकड़ों में ज़ीना पसंद नहीं ,

पर टुकड़े ही चुनता रहता हूँ .

गैरों संग रहना पसंद नहीं ,

पर अपनों संग कहाँ ही रहता हूँ. 

Sunday, March 17, 2013

अक्सर ऐसा होता है, जब हवा जोर की चलती है.


अक्सर ऐसा होता है, 

            जब हवा जोर की चलती है.  

हर ओर वो बहने लगती है,

            सब पर अधिकार वो करती है. 

उस ज़मीन की धूल को वो,

            संग अपने ले के बहती है . 

वो धूल अभी तक जो पैरों पे थी,

            अब ऊँचे आकाश में होती है.



यद्यपि ये छोटी घटना,

            बस क्षणभंगुर ही होती है. 

तिस पर भी उस तुच्छ सी धूल में तो,

            वो बीज अहं का बोती है .

वो धूल गुर्रा कर कहती है,

            अब मुझसे ऊंचा कौन भला. 

अब मैं ही हूँ सर्वत्र कहीं, 

            अब मेरे जैसा कौन यहाँ.



तब मुस्का कर धरती माँ, 

            उस अनंत गगन से कहतीं हैं.

इस धूल को तू अब सबक सिखा,

            ये देख भला क्या बकती है. 

घनघोर घटाएं हैं छाती,

             बादल से बूँदें ले आती.

ये बूँदें अपने में समेंट,

             विनाश धूल का हैं लाती.



जो धूल अभी तक उस आकाश में,

             दूर कहीं तक व्याप्त थी .   

अब मिट्टी की पतली धारा बन के,

             कीचड जीवन स्वीकारती. 

आकाश अभी भी वैसा है,

             स्वच्छ है उजला जैसा है.

उसमें न कोई अहं ही है,

             क्यूंकि वो सदियों से ऐसा है. 


Tuesday, January 29, 2013

अजीब सी रात है ,सूने से ज़ज्बात है

अजीब सी रात है ,सूने से ज़ज्बात है।
मन बहुत अकेला है, अन्दर से खोखला यादों का एक ढेला है। 
कुछ समझ नहीं आता , क्या जाने भावों को झकझोर जाता।
कुछ अनसुना सा एहसास है , जाने कैसी प्यास है।
अजीब सा लगता है , रोने को मन करता है। 
पर आंसू सूखे रहते है , जाने किससे डरते हैं।

किसी एक की तलाश है , लगता कोई भी नहीं अपना पास है। 
सब दूर दूर हो गये हैं , अपनी जिंदगी में मशगूल हो गए हैं। 
रिश्तें कितने खोखले होते जाते है , लोग जाने कितने दोगले होते जाते हैं।

पता नहीं मुझे ही क्यों है ऐसा लगता ,जाने मेरा मन ही क्यों नहीं है बहता। 
ये ही हमेशा ठिठक क्यों है जाता, दूसरों को बहते देख अटक क्यों है जाता।
ऐसा क्यों है लगता , की लोग समझ क्यों नहीं पाते।
अठखेलियाँ करती लहरों की गहराई परख क्यों नहीं पाते। 

Tuesday, October 30, 2012

what should i say 
and what should i not
should i say something 
or should i say a lot.

should i seize my lips 
and bind them with strips,
or should i leave them all open, 
and let them speak leaving 
all boundaries broken 

should i not care about pro's and con's,
should i not care about do's and dont's,
should i let my heart flow,
crossing all the limits in a single show.

should i go beyond the conventional way, 
and change the written in the single stay.
or should i be on the right way,
keeping myself safe and secure 
in each and every stay.

but the question is -
can i change this very it,
can i cross this very limit, 
can i ever be able to cross that way,
and can ever i hide myself 
becoming HIS pray.

Monday, October 29, 2012

लगती हैं साँसे येह मद्धम , लगता है पूरा भी कुछ कम.

लगती हैं साँसे येह मद्धम ,
लगता है पूरा भी कुछ कम.
लगती हैं आँखे अब यह नम,
लगती हैं ख़ुशी संजोये गम .

लगता हर लम्हा भारी सा,
लगता उजड़ा फूलवारी सा .
लगता अब भूख  न प्यास ही है,
लगता मन बिना पुष्प की क्यारी सा .
 
लगता है सवेरा धुंधला सा ,
कोहरे की चादर में लिपटा.
लगती हैं शामें धूमिल सी , 
ल्ख्स्मन को खोजे उर्मिल सी.

लगती है लाखों की भीड़ भी यों,
निर्जीव से पत्थर बिखरे ज्यो.
लगती वोह ध्वनियाँ- बातें यों ,
जो चीख रहे ये पत्थर हो.

येह जो तेरे स्वप्न हैं , 

वोह हैं तुझे ललकारते.


तू न डर जाए न छिप जाए , 

तुझे हुंकारते . 



है अगर तुझमें वोह शक्ति ,

या छिपी तुझमें कही .

तोह तू भिड जाए उसी से ,

छीन जिसने नींद ली .


करवटे अब न बदल ,

बस ऐ मेरे हमराह तू .

उठा कर तू सस्त्र अपने ,

सर्प सा फुफकार तू .


शक्ति मिलती हैं नहीं ,

उसको जो है बस गिड -गिडाता .
वोह तोह मिलती है उसे ,
जो छीन कर उसको है लाता .


तू भी अपना मान अब ,
सम्मान अपना खुद बना ले .
युद्ध करके विजयी हो ,
या प्राण युद्ध में चढ़ा दे .


डर के जीने पर ये जीवन ,
तू ना जीने पायेगा .
मर भी जायेगा अभी ,
पर मोक्ष तू ना पायेगा .


मोक्ष तो तुझको मिलेगा ,
जब लड़ेगा भय से तू .
भय का सर धड से अलग कर ,
भय को भय दे देगा तू .

Tuesday, October 4, 2011

nadi

      नदी 
जो सबसे दूर कभी होता हूँ
    नदी के उस ओर कभी होता हूँ
नदी प्रवाह देखा करता हूँ 
    थाह ही उसकी लिया करता हूँ 

सोचता हूँ है उद्गम कहा उसका 
     और अंत कहा होता है उसका 
कभी सिकुड़ता कभी फैलता 
      क्या अजीब है जीवन उसका 

कितने घाट है मिलते उसको 
      कितने नाले , नहरें मिलती 
कितने उसको मलिन है करते 
      और करते हैं पावन उसको

कभी कभी बरसात में तोह वोह 
       खूब उछलती और उफनाती 
तोह कभी बिना पानी के वोह 
       दुर्बल सिकुड़ी काया बन जाती 

कितने जीवों को जानती वोह 
      कितनो पर उपकार वोह करती
कितने घाटों से मिलती वोह 
      कितनो का प्रतिकार वोह करती 

पर फिर भी वोह चले अकेली 
      बिना किसी वोह संग सहेली 
मिलते घाटों को है त्यागती 
      बिना किसी वोह संग-संगाती 

पास जो घाट कभी आते हैं 
     पीछे छूट वेह भी जाते हैं
पर उनकी मिट्टी साथ जो बहती 
      यादों का एहसास वोह कहती 

मिट्टी के रंग धूमिल पड़ते 
      पर उनके कण साथ ही बहते 
घाटों का तोह पता नहीं 
      पर यह कण संगम साथ ही रहते