Tuesday, October 4, 2011

nadi

      नदी 
जो सबसे दूर कभी होता हूँ
    नदी के उस ओर कभी होता हूँ
नदी प्रवाह देखा करता हूँ 
    थाह ही उसकी लिया करता हूँ 

सोचता हूँ है उद्गम कहा उसका 
     और अंत कहा होता है उसका 
कभी सिकुड़ता कभी फैलता 
      क्या अजीब है जीवन उसका 

कितने घाट है मिलते उसको 
      कितने नाले , नहरें मिलती 
कितने उसको मलिन है करते 
      और करते हैं पावन उसको

कभी कभी बरसात में तोह वोह 
       खूब उछलती और उफनाती 
तोह कभी बिना पानी के वोह 
       दुर्बल सिकुड़ी काया बन जाती 

कितने जीवों को जानती वोह 
      कितनो पर उपकार वोह करती
कितने घाटों से मिलती वोह 
      कितनो का प्रतिकार वोह करती 

पर फिर भी वोह चले अकेली 
      बिना किसी वोह संग सहेली 
मिलते घाटों को है त्यागती 
      बिना किसी वोह संग-संगाती 

पास जो घाट कभी आते हैं 
     पीछे छूट वेह भी जाते हैं
पर उनकी मिट्टी साथ जो बहती 
      यादों का एहसास वोह कहती 

मिट्टी के रंग धूमिल पड़ते 
      पर उनके कण साथ ही बहते 
घाटों का तोह पता नहीं 
      पर यह कण संगम साथ ही रहते