अक्सर ऐसा होता है, जब हवा जोर की चलती है. हर ओर वो बहने लगती है, सब पर अधिकार वो करती है. उस ज़मीन की धूल को वो, संग अपने ले के बहती है . वो धूल अभी तक जो पैरों पे थी, अब ऊँचे आकाश में होती है. यद्यपि ये छोटी घटना, बस क्षणभंगुर ही होती है. तिस पर भी उस तुच्छ सी धूल में तो, वो बीज अहं का बोती है . वो धूल गुर्रा कर कहती है, अब मुझसे ऊंचा कौन भला. अब मैं ही हूँ सर्वत्र कहीं, अब मेरे जैसा कौन यहाँ. तब मुस्का कर धरती माँ, उस अनंत गगन से कहतीं हैं. इस धूल को तू अब सबक सिखा, ये देख भला क्या बकती है. घनघोर घटाएं हैं छाती, बादल से बूँदें ले आती. ये बूँदें अपने में समेंट, विनाश धूल का हैं लाती.
जो धूल अभी तक उस आकाश में, दूर कहीं तक व्याप्त थी . अब मिट्टी की पतली धारा बन के, कीचड जीवन स्वीकारती. आकाश अभी भी वैसा है, स्वच्छ है उजला जैसा है. उसमें न कोई अहं ही है, क्यूंकि वो सदियों से ऐसा है.